श्रीमद् भागवत पुराण कथा: भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की महिमा

श्रीमद् भागवत पुराण कथा: भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की महिमा bhagavat-katha-bhakti-gyan-vairagya

परिचय

श्रीमद् भागवत पुराण हिंदू धर्म का एक प्रमुख ग्रंथ है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं और भक्ति के महत्व का वर्णन किया गया है। यह कथा न केवल आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करती है, बल्कि जीवन के नैतिक मूल्यों को भी दर्शाती है। इस लेख में हम देवर्षि नारद और भक्ति देवी के संवाद के माध्यम से श्रीमद् भागवत पुराण की एक विशेष कथा का वर्णन करेंगे, जो भक्ति, ज्ञान, और वैराग्य के महत्व को उजागर करती है।

कथा का प्रारंभ

श्रीमद्भागवत की कथा देवर्षि नारद ने ब्रह्मा जी से सुनी, परंतु साप्ताहिक कथा उन्होंने सनकादि ऋषियों से सुनी। शौनक जी ने पूछा, “देवर्षि नारद तो एक ही स्थान पर अधिक देर ठहर नहीं सकते, फिर उन्होंने किसी स्थान पर और किस कारण से इस कथा को सुना?” श्री सूत जी कहते हैं, “एक बार विशालापुरी बद्रिका आश्रम में सत्संग के लिए सनकादि चारों ऋषि आए। वहाँ उन्होंने नारद जी को आते हुए देखा, तो पूछा—

कथं ब्रह्मन्दीनमुखं कुतश्चिन्तातुरो भवान् |
त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव ||

देवर्षि! इस प्रकार आप चिंतातुर क्यों हैं? इतने शीघ्र तुम्हारा आगमन कहाँ से हो रहा है और अब तुम कहाँ जा रहे हो?

देवर्षि नारद ने कहा, “मुनिश्रेष्ठों! मैंने पृथ्वीलोक को उत्तम जानकर वहाँ के तीर्थों में भ्रमण किया — पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबंध रामेश्वर आदि तीर्थों में भी गया, परंतु मन को संतोष देने वाली शांति मुझे कहीं नहीं मिली। अधर्म के मित्र कलियुग ने समस्त पृथ्वी को पीड़ित कर रखा है। सत्य, तपस्या, पवित्रता, दया, दान कहीं भी दिखाई नहीं देते। सभी प्राणी अपने पेट भरने में लगे हुए हैं —

पाखण्डनिरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः ||

संत पाखंडी हो गए, विरक्त संग्रही हो गए।

तपसि धनवंत दरिद्र गृही |
कलि कौतुक तात न जात कही ||

घर में स्त्रियों की प्रभुता चलती है, साले सलाहकार बन गए हैं, पति-पत्नी में झगड़ा मचा रहता है।”

वृंदावन में भक्ति का दर्शन

इस प्रकार कलियुग के दोषों को देखता हुआ मैं यमुना के तट, श्रीधाम वृंदावन में पहुँचा, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थली है। वहाँ मैंने एक आश्चर्य देखा — एक युवती स्त्री खिन्न मन से बैठी हुई थी। उसके समीप में दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में पड़े जोर-जोर से साँस ले रहे थे। वह युवती उन्हें जगाने का प्रयास करती, जब वे नहीं जागते तो वह रोने लगती। सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा कर रही थीं और बारंबार समझा रही थीं। यह आश्चर्य दूर से देख मैं पास गया। मुझे देखते ही वह युवती स्त्री खड़ी हो गई और कहने लगी —

भो भो साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय ||

हे महात्मन! कुछ देर ठहर जाइए और मेरी चिंता का नाश कीजिए।

मैंने कहा, “देवी! आप कौन हैं? यह दोनों पुरुष और ये स्त्रियाँ कौन हैं तथा अपने दुख का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।” उस युवती ने कहा —

अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ |
ज्ञानवैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ ||

देवर्षि! मैं भक्ति हूँ, और ये दोनों ज्ञान तथा वैराग्य मेरे पुत्र हैं। काल के प्रभाव से ये वृद्ध हो गए हैं और ये सब गंगा आदि नदियाँ मेरी सेवा के लिए यहाँ आई हैं।

उत्पन्ने द्रविणे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता |
क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता ||

मैं दक्षिण में उत्पन्न हुई तथा कर्नाटक में वृद्धि को प्राप्त हुई, कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई और गुजरात में जाकर जीर्णता को प्राप्त हो गई। वहाँ घोर कलिकाल के कारण पाखंडियों ने मुझे अंग-भंग कर दिया —

वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेन सुरूपिणी ||

और वृंदावन को प्राप्त करके पुनः मैं युवती हो गई। परंतु मेरे पुत्र अभी भी वैसे ही थके-माँदे पड़े हुए हैं, इसलिए अब मैं इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूँ।

भक्ति और कलियुग

देवर्षि नारद ने कहा, “देवी! यह दारुण कलियुग है, जिसके कारण सदाचार, योगमार्ग और तपस्या लुप्त हो गए हैं। इस समय संत, सत्पुरुष दुखी हैं और दुष्ट प्रसन्न। इस समय जिसका धैर्य बना रहे वही ज्ञानी है।

वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणीनवा |
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च ||

इस वृंदावन को प्राप्त करके आज पुनः आप युवती हो गईं। यह वृंदावन धन्य है, जहाँ भक्ति महारानी नृत्य करती हैं।”

भक्ति देवी कहती हैं, “देवर्षि! यदि यह कलियुग ही अपवित्र है, तो राजा परीक्षित ने इसे क्यों स्थापित किया? और करुणा परायण भगवान श्रीहरि भी इस अधर्म को होते हुए कैसे देख रहे हैं?”

देवर्षि नारद ने कहा, “देवी! जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण इस लोक को छोड़कर अपने धाम में गए, उसी समय साधनों में बाधा पहुँचाने वाला कलियुग आ गया। दिग्विजय के समय राजा परीक्षित की दृष्टि जब इस पर पड़ी, तो कलियुग दीन के समान उनकी शरण में आ गया। भ्रमर के समान सारग्राही राजा परीक्षित ने देखा —

यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना |
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशवकीर्तनात् ||

जो फल अन्य युगों में तपस्या, योग, समाधि के द्वारा नहीं प्राप्त होता था, वह फल कलियुग में मात्र भगवान श्रीहरि के कीर्तन से प्राप्त हो जाता है। इस एक गुण के कारण राजा परीक्षित ने कलियुग को स्थापित किया।

देवी, इस कलिकाल के कारण पृथ्वी के संपूर्ण पदार्थ बीजहीन भूसी के समान व्यर्थ हो गए हैं। धन के लोभ के कारण कथा का सार चला गया।

अयं तु युगधर्मो हि वर्तते कस्य दूषणम् |

यह युगधर्म ही है, इसमें किसी का कोई दोष नहीं।”

भक्ति की महिमा

देवर्षि नारद के इन वचनों को सुनकर भक्ति महारानी को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा, “देवर्षि, आप धन्य हैं तथा मेरे भाग्य से ही आपका यहाँ आना हुआ। साधुओं का दर्शन इस लोक में समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।

जयति जगति मायां यस्य काया ध्वस्ते,
वचनरचनमेकं केवलं चाकलय्य |
ध्रुवपदमपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोऽयं,
सकल कुशल पात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि ||

जिनके एकमात्र उपदेश को धारण करके कयाधु नन्दन प्रह्लाद ने माया पर विजय प्राप्त कर ली और जिनकी कृपा से ध्रुव ने ध्रुव पद को प्राप्त कर लिया, ऐसे ब्रह्मा जी के पुत्र देवर्षि नारद को मैं प्रणाम करती हूँ।”

देवर्षि नारद कहते हैं, “देवी, आप भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्मरण करो, आपका दुख दूर हो जाएगा। जिन भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों के अत्याचार से द्रौपदी की रक्षा की, वे श्रीकृष्ण कहीं गए नहीं हैं, और आपको तो वह प्राणों से भी ज़्यादा स्नेह करते हैं। तुम्हारे बुलाने पर तो वे नीचे के घर भी चले जाते हैं।”

ज्ञान और वैराग्य का उद्धार

देवर्षि नारद ने जब इस प्रकार भक्ति की महिमा का वर्णन किया, तो भक्ति महारानी ने कहा, “देवर्षि, आपने क्षण भर में मेरा दुख दूर कर दिया। अब ऐसा प्रयास कीजिए कि मेरे पुत्रों का दुख भी दूर हो जाए और उन्हें चेतना प्राप्त हो जाए।”

भक्ति महारानी के इस प्रकार कहने पर देवर्षि नारद ज्ञान–वैराग्य को हिला–डुला कर उठाने का प्रयास करने लगे, परंतु जब वे नहीं उठे तो उनका नाम पुकारने लगे। इतने पर भी नहीं जागे तो वेद–वेदांत का घोष और गीता का पाठ करने लगे। इससे वे जैसे-तैसे जागे, परंतु जम्हाई लेकर पुनः सो गए। यह देखकर देवर्षि नारद चिंतित हो गए और गोविंद का चिंतन करने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई—

उद्यमः सफलस्तेयं भविष्यति न संशयः ||

“देवर्षि, तुम्हारा उद्योग सफल होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। इसके लिए तुम सत्कर्म करो और वह सत्कर्म तुम्हें साधु–पुरुष बताएंगे।”

आकाशवाणी को सुन देवर्षि नारद विचार करने लगे, “आकाशवाणी ने भी गुप्त रूप से वर्णन किया है। वह कौन सा साधन है जिसके करने से ज्ञान–वैराग्य की मूर्छा दूर हो जाए?”

निष्कर्ष

यह कथा हमें भक्ति के महत्व को दर्शाती है। भक्ति ही वह शक्ति है जो कलियुग में भी मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति प्रदान कर सकती है। वृंदावन जैसी पवित्र भूमि में भक्ति का नृत्य और भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण हमें जीवन के दुखों से मुक्ति दिला सकता है।

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